सुगौली संधि, जिस सीमा विवाद में भारत और नेपाल दोनों आधार बनाते

इतिहास के गर्भ में भविष्य छिपा होता है। हमें इतिहास को मास जाना ही नहीं बल्कि समझना भी चाहिए। चंपा की भीनी भीनी खुशबू और हरे-भरे वनों को लेकर मशहूर चंपारण की धरती कल कल करते से सिकरहना के तट पर अवस्थित सुगौली अपने आंचल में अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षणों और घटनाक्रम को समेटे हुए हैं ।सुगौली एक ऐतिहासिक स्थल है जहां भारत और नेपाल के बीच 4 मार्च 1816 को संधि हुई थी जिसके आधार पर दोनों देशों का सीमांकन भी हुआ जो घटनाक्रम इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है।

1960 में लिखी गई चंपारण गजेटियर के विस्तार अध्ययन से यह मालूम चलता है कि सुगौली संधि ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के गोरखाओं के बीच 1816 में हुआ था। जिसके तहत यह कहा गया है कि राप्ती और गंडक के बीच के तराई क्षेत्र पर भारत का अधिपत्य रहेगा। केवल बुटवल खास को छोड़कर। दरअसल नेवार राजवंश के बाद गोरखांओ का नेपाल में पदार्पण हुआ तो ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ उनकी पटी नहीं। लिहाजा ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1814 में नेपाल पर हमला कर दिया और तराई क्षेत्र में अपना झंडा गाड़ दिया। इसके बाद चंपारण के सुगौली में कंपनी और गोरखाओं के बीच संधि हुई।

जिसे आज हम सुगौली संधि के नाम से जानते हैं। हम उस मिट्टी से आते हैं इसलिए भी इसका जिक्र करना बहुत जरूरी हो जाता है। देश आजाद हुआ और नेपाल के साथ रिश्ते बेहतर होते गए। नेपाल से रिश्ते सुधारने के बाद 1950 में भारत और नेपाल के बीच शांति समझौता हुआ ।इस समझौते में गंडक उस पार तराई के कुछ हिस्से नेपाल को मिल गए पर जैसे जैसे गंडक ने अपना रुख भारत की तरफ किया वैसे वैसे भारतीय भूभाग पर नेपाल का अतिक्रमण शुरू हुआ। भारत के विरोध पर नेपाल ने तर्क दिया कि सुगौली संधि के बाद 1950 में एक नया शांति समझौता हो गया तो अंग्रेजों के किए गए संधि का क्या औचित्य। सो नदी उस पार के जो भूभाग हैं वह नेपाल के हैं जाहिर है नेपाल तब चीन के सह पर कूटनीतिक चाल चल रहा था ‌।दरअसल राज्य साही के अंत के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा का जो अभ्युदय हुआ वह कहीं ना कहीं चीनी ताकतों के विचारों से ओतप्रोत है।

तभी तो पुरानी परंपराओं को तोड़कर प्रचंड प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत के बजाय चीन के ज्यादा मुफीद हो गए। पर माओवादियों को या नहीं भुलना चाहिए कि उन्होंने राजशाही के अंत का जो जमीन को तैयार किया उसके लिए उन लोगों ने भारत की जमीन का इस्तेमाल किया। यह जगजाहिर है कि नेपाल को कुछ भी करना होता है तो इसके लिए भारत के जमीन की जरूरत पड़ती है और हम भी एक अच्छे पड़ोसी की तरह या धर्म निभाते हैं। हाल के कुछ महीनों में नेपाल में हुए आंदोलन से एक तरफ जहां नेपाल को काफी नुकसान हुआ वहीं भारतीय भी उसके जद में आए ।हालांकि एक दूसरी विचारधारा बार-बार उकसा कर भारतीय विदेश मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय को यह सूचना देती रहती है कि वर्तमान स्थिति को भांपते हुए दोनों देशों के बीच में पासपोर्ट सिस्टम लागू कर दिया जाना चाहिए ।दरअसल यह एक ऐसी सोच है जिसके तलब गार दोनों तरफ हैं लेकिन गुनाहगार कौन है यह मापना यहां की आम जनता के लिए जरूरी है। हो सकता है चीन जरूर ऐसी सोचता हो लेकिन भारत सरकार का ऐसा कोई ख्याल नहीं।

हाल के वर्षों में जब नेपाल के प्रधानमंत्री भारत की यात्रा पर आए तो कई अहम मुद्दों पर समझौते हुए भी जो इस ओर रुख बताते हैं कि आज भी हम नेपाल के सबसे अच्छे पड़ोसी हैं और सबसे अच्छे मित्र हैं आगे भी ऐसे ही रहेंगे ऐसी आशा रखते हैं।

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